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ग़ज़ल
वजूद-ए-बे-हक़ीक़त पर न इतना शादमाँ होता
जो असरार-ए-हक़ीक़त का भी इंसाँ राज़-दाँ होता
मुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी
ग़ज़ल
ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-जानाँ का निशाँ है कि जो था
वस्फ़-ए-ख़ूबाँ ब-हदीस-ए-दिगराँ है कि जो था
सय्यद आबिद अली आबिद
ग़ज़ल
यक़ीनन है कोई माह-ए-मुनव्वर पीछे चिलमन के
कि उस की पुतलियों से आ रहा है नूर छन छन के
रंजूर अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
संग-दिल को नर्म-ओ-नाज़ुक फूल कर तो लूँ मगर
तेरी ख़ुशबू की तरह मुझ में उतर सकता है कौन