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ग़ज़ल
एक मफ़रूज़ा तक़द्दुस ख़ुद पे तारी कर रहा हूँ
कोह-ए-इस्याँ से बहिश्ती नहर जारी कर रहा हूँ
खुर्शीद अकबर
ग़ज़ल
वो ऐसी ख़ंदा-पेशानी से हर मारूज़ा सुनते हैं
ये समझे अर्ज़ करने वाला अब मंज़ूर होता है
सफ़ी औरंगाबादी
ग़ज़ल
ज़र्रे ज़र्रे में तो वो ख़ुद है मकीं वर्ना हम
छुप न जाएँ कहीं मफ़रूर न हो जाएँ कहीं
राहील फ़ारूक़
ग़ज़ल
पड़ोसियों के तमाम मफ़्रूज़े सच हुए हैं
मैं बे-समर सोचूँ की ज़ेहानत को धुन रहा हूँ
मुसव्विर सब्ज़वारी
ग़ज़ल
भिकारन जाते जाते पीछे मुड़ कर देख ले तो
मैं उस के नाम कर दूँ दिल के मफ़्तूहा 'इलाक़े
सरफ़राज़ ज़ाहिद
ग़ज़ल
हम मेहराब और मिम्बर वालों की आँखों को चुभते हैं
हम ने अक़्ल को रहबर माना हम मफ़रूर ख़ुदाओं के
इफ़्तिख़ार हैदर
ग़ज़ल
जुदाई से होवे मफ़रूर जाँ क़ालिब के सूबा सूँ
अपस दीदार सूँ करती हैं फिर उस कूँ बहाल अँखियाँ