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ग़ज़ल
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
रात दिन महबूस अपने ज़ाहिरी पैकर में हूँ
शोला-ए-मुज़्तर हूँ मैं लेकिन अभी पत्थर में हूँ
रियाज़ मजीद
ग़ज़ल
जहाँ हैं महबूस अब भी हम वो हरम-सराएँ नहीं रहेंगी
लरज़ते होंटों पे अब हमारे फ़क़त दुआएँ नहीं रहेंगी
हबीब जालिब
ग़ज़ल
महबूस हूँ ग़ारों में मगर आज़र-ए-तख़ईल
चट्टानों में अश्काल-ए-हुनर काट रहा है
बिलक़ीस ज़फ़ीरुल हसन
ग़ज़ल
मुझे न महबूस कर सकेगी किसी भी पाज़ेब की छना-छन
गिरफ़्त की मंज़िलों से आगे गुज़र चुका है शुऊ'र मेरा