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ग़ज़ल
क्या अक़्ल मोहतसिब की कि लाया है खींच कर
सौदा-ज़दों को महकमा-ए-एहतिसाब में
मुफ़्ती सदरुद्दीन आज़ुर्दा
ग़ज़ल
तरब-आशना-ए-ख़रोश हो तू नवा है महरम-ए-गोश हो
वो सरोद क्या कि छुपा हुआ हो सुकूत-ए-पर्दा-ए-साज़ में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मय-कदा सुनसान ख़ुम उल्टे पड़े हैं जाम चूर
सर-निगूँ बैठा है साक़ी जो तिरी महफ़िल में है
बिस्मिल अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
ये है मय-कदा यहाँ रिंद हैं यहाँ सब का साक़ी इमाम है
ये हरम नहीं है ऐ शैख़ जी यहाँ पारसाई हराम है
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
अब भी उन यादों की ख़ुश्बू ज़ेहन में महफ़ूज़ है
बार-हा हम जिन से गुलज़ारों को महकाने गए
ख़ातिर ग़ज़नवी
ग़ज़ल
सौ बार चमन महका सौ बार बहार आई
दुनिया की वही रौनक़ दिल की वही तन्हाई