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ग़ज़ल
बुतान-ए-माह-वश उजड़ी हुई मंज़िल में रहते हैं
कि जिस की जान जाती है उसी के दिल में रहते हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
ये अजीब साक़ी-ए-माह-वश तिरे मय-कदे का निज़ाम है
हुआ जैसे तू भी दिवालिया न तो ख़ुम न मय है न जाम है
शौक़ बहराइची
ग़ज़ल
किसी महवश के ग़म ने कर दिया ना-ताक़त ऐसा ही
कि छुटते देखते हैं अक्सर आँखों आगे तारे हम
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
वस्ल-ए-महवश का दिला मुज़्दा हमें दे है चराग़
झड़ते हैं हर दम शब-ए-हिज्राँ में मुँह से इस के फूल