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ग़ज़ल
दरून-ए-मै-कदा किस दर्जा हसरत-रेज़ है साक़ी
जो गर्द-आलूद कुर्सी है तो टूटी मेज़ है साक़ी
क़ाज़ी गुलाम मोहम्मद
ग़ज़ल
ये है मय-कदा यहाँ रिंद हैं यहाँ सब का साक़ी इमाम है
ये हरम नहीं है ऐ शैख़ जी यहाँ पारसाई हराम है
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
तवाफ़-ए-मय-कदा ही से है मुझ को काम ऐ साक़ी
यही ईमाँ यही है शग़्ल सुब्ह-ओ-शाम ऐ साक़ी
मेहदी मछली शहरी
ग़ज़ल
तुम्हारी अँखड़ियों में है सहर गंगा के साहिल की
मगर मय-ख़्वार उस को मय-कदे की शाम कहते हैं
एहसान दरबंगावी
ग़ज़ल
क्या मै-कदा है इश्क़ हक़ीक़त में यार का
बे-ख़ुद का है जो हाल वही होशियार का
वहीदुद्दीन अहमद वहीद
ग़ज़ल
ज़मीन मय-कदा-ए-अर्श-ए-बरीं मा'लूम होती है
ये ख़िश्त-ए-ख़ुम फ़रिश्ते की जबीं मा'लूम होती है