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ग़ज़ल
रुख़ का जल्वा पिन्हाँ रक्खा पैदा कर के मख़्लूक़ात
हुस्न-ए-ज़ाहिर सब ने देखा किस ने देखा हुस्न-ए-ज़ात
नज़र लखनवी
ग़ज़ल
इक गर्दन-ए-मख़्लूक़ जो हर हाल में ख़म है
इक बाज़ू-ए-क़ातिल है कि ख़ूँ-रेज़ बहुत है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
भला मख़्लूक़ ख़ालिक़ की सिफ़त समझे कहाँ क़ुदरत
उसी से नेति नेति ऐ यार दीदों ने पुकारा है
भारतेंदु हरिश्चंद्र
ग़ज़ल
मोम के जिस्मों वाली इस मख़्लूक़ को रुस्वा मत करना
मिशअल-ए-जाँ को रौशन करना लेकिन इतना मत करना
शहरयार
ग़ज़ल
शरीक-ए-कसरत-ए-मख़्लूक़ तू क्यूँ हो गया यारब
तिरी वहदत का पर्दा क्या हुआ मैदान-ए-महशर में
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
कहा तख़्लीक़-ए-फ़न बोले बहुत दुश्वार तो होगी
कहा मख़्लूक़ बोले बाइस-ए-आज़ार तो होगी
ऐतबार साजिद
ग़ज़ल
फ़रिश्ते भी न समझे आज तक मेरी हक़ीक़त को
कि ताज-ए-अशरफ़-ए-मख़्लूक़ की ज़ीनत है सर मेरा