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ग़ज़ल
क्यूँ लोगों से मेहर-ओ-वफ़ा की आस लगाए बैठे हो
झूट के इस मकरूह नगर में लोगों का किरदार कहाँ
कुमार पाशी
ग़ज़ल
जिस्म-ओ-जाँ कैसे कि ‘अक़्लों में तग़य्युर हो चला
था जो मकरूह अब पसंदीदा है और मक़्बूल है
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
उस मय से नहीं मतलब दिल जिस से है बेगाना
मक़्सूद है उस मय से दिल ही में जो खिंचती है
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
अमीर ख़ुसरो
ग़ज़ल
यूँ तो आपस में बिगड़ते हैं ख़फ़ा होते हैं
मिलने वाले कहीं उल्फ़त में जुदा होते हैं