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ग़ज़ल
शहीदान-ए-वफ़ा की मंक़बत लिखते रहे लेकिन
न की अर्ज़ी ख़ुदाओं की कभी हम्द-ओ-सना हम ने
अब्दुल अज़ीज़ ख़ालिद
ग़ज़ल
तिश्नगी के भी मक़ामात हैं क्या क्या यानी
कभी दरिया नहीं काफ़ी कभी क़तरा है बहुत
कृष्ण बिहारी नूर
ग़ज़ल
तू अपने मन का मनका फेर ज़ाहिद वर्ना क्या हासिल
तुझे इस मक्र की तस्बीह से ज़ुन्नार बेहतर था
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
ग़ज़ल
तमन्नाओं के तूफ़ानों ने फ़ुर्सत ही न मिलने दी
मक़ामात-ए-निगाह-ओ-दिल न तुम समझे न हम समझे