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ग़ज़ल
हुई इस दौर में मंसूब मुझ से बादा-आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहाँ में जाम-ए-जम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
सहरा की मुँह-ज़ोर हवाएँ औरों से मंसूब हुईं
मुफ़्त में हम आवारा ठहरे मुफ़्त में घर वीरान हुआ
मोहसिन नक़वी
ग़ज़ल
हम हैं ख़ामोश कि मजबूर-ए-मोहब्बत थे 'फ़राज़'
वर्ना मंसूब हैं सरकार से बातें क्या क्या
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
कुछ ग़म-ए-जानाँ कुछ ग़म-ए-दौराँ दोनों मेरी ज़ात के नाम
एक ग़ज़ल मंसूब है उस से एक ग़ज़ल हालात के नाम
मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद
ग़ज़ल
वो दीवाने ज़माम-ए-लाला-ओ-गुल थाम लेते हैं
जिन्हें मंसूब कर देती हैं वीराने तिरी आँखें
साग़र सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
शेर तो उन पर लिक्खे लेकिन औरों से मंसूब किए
उन को क्या क्या ग़ुस्सा आया नज़्मों के उनवानों पर