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ग़ज़ल
तिरी मक़बूलियत की वज्ह वाहिद तेरी रमज़िय्यत
कि उस को मानते ही कब हैं जिस को जान लेते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
अमजद नजमी
ग़ज़ल
हुए हैं वो ना-क़ाबिलों में शुमार अब
जिन्हें मानते थे ज़माने के क़ाबिल
मुफ़्ती सदरुद्दीन आज़ुर्दा
ग़ज़ल
एक मैं हूँ जिस को तुम मानते नहीं 'शाइर'
और एक मैं ही हूँ तुम में नुक्ता-दाँ यारो