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ग़ज़ल
मक़्सद है नाज़-ओ-ग़म्ज़ा वले गुफ़्तुगू में काम
चलता नहीं है दशना-ओ-ख़ंजर कहे बग़ैर
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
तलाश-ए-मंज़िल-ए-मक़्सद की गर्दिश उठ नहीं सकती
कमर खोले हुए रस्ते में हम रहज़न के बैठे हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
मैं दिया-सलाई की रौशनी में तलाश करता रहा तुम्हें
मगर अपना मक़्सद अँधेरी रात बताना हो कहीं यूँ न हो
साबिर ज़फ़र
ग़ज़ल
मक़्सद-ए-इश्क़ हम-आहंगी-ए-जुज़्व-ओ-कुल है
दर्द ही दर्द सही दिल बू-ए-दम-साज़ तो दे
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
बे-हद बेचैनी है लेकिन मक़्सद ज़ाहिर कुछ भी नहीं
पाना खोना हँसना रोना क्या है आख़िर कुछ भी नहीं