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ग़ज़ल
रास्ता में इक नया मंज़र नज़र आया तो क्या
साथ चलने अपने कोई हम-सफ़र आया तो क्या
मर्दान अली खां निशात
ग़ज़ल
बाशिंदे हक़ीक़त में हैं हम मुल्क-ए-बक़ा के
कुछ रोज़ से मेहमान हैं इस दार-ए-फ़ना के
मर्दान अली खां राना
ग़ज़ल
कर दिया ज़ार ग़म-ए-इश्क़ ने ऐसा मुझ को
मौत आई भी तो बिस्तर पे न पाया मुझ को
मर्दान अली खां राना
ग़ज़ल
क़दम लूँ मादर-ए-हिन्दोस्ताँ के बैठते उठते
मिरी ऐसी कहाँ क़िस्मत नसीबा ये कहाँ मेरा
विनायक दामोदर सावरकर
ग़ज़ल
है आईना-ख़ाने में तिरा ज़ौक़-फ़ज़ा रक़्स
करते हैं बहुत से तिरे हम-शक्ल जुदा रक़्स