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ग़ज़ल
बयाँ क्या कीजिए बेदाद-ए-काविश-हा-ए-मिज़गाँ का
कि हर यक क़तरा-ए-ख़ूँ दाना है तस्बीह-ए-मरजाँ का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ग़म आग़ोश-ए-बला में परवरिश देता है आशिक़ को
चराग़-ए-रौशन अपना क़ुल्ज़ुम-ए-सरसर का मर्जां है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
गुल-बर्ग का ये रंग है मर्जां का ऐसा ढंग है
देखो न झुमके है पड़ा वो होंट लाल-ए-नाब सा
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
सुर्ख़ी-ए-पाँ देख ले ज़ाहिद जो दंदाँ पर तिरे
उठ खड़ा हो हाथ से तस्बीह-ए-मरजाँ छोड़ कर
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
मर कर तिरे लबाँ की सुर्ख़ी के तईं न पहुँचे
हर चंद सई कर कर याक़ूत-ओ-ल'अल-ओ-मर्जां
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
वो हँसते हैं तो खुलता है जवाहिर-ख़ाना-ए-क़ुदरत
इधर लाल और उधर नीलम इधर मर्जां उधर मोती
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
होंट पर अंगुश्त-ए-रंगीं रख के वो कहने लगे
शाख़-ए-मर्जां ने समर पैदा किया उन्नाब का
मुनीर शिकोहाबादी
ग़ज़ल
ब-जोश-ए-इश्क़ लटके है नहीं मुझ को तमीज़ इतनी
ब-मिज़्गाँ लख़्त-ए-दिल या दुर है या मरजान है क्या है