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ग़ज़ल
निज़ाम-ए-शम्स-ओ-क़मर कितने दस्त-ए-ख़ाक में हैं
ज़माने जैसे तिरी चश्म-ए-ख़्वाब-नाक़ में हैं
सुलैमान अरीब
ग़ज़ल
तिलिस्म-ए-शम्स-ओ-नुजूम-ओ-क़मर से गुज़रे हैं
दयार-ए-हुस्न की हर रहगुज़र से गुज़रे हैं
नईम हामिद अली
ग़ज़ल
ऐ रश्क-ए-क़मर आगे तिरे शम्स-ओ-क़मर क्या
सौ जाँ से फ़िदा हूँ मैं ये है जान-ओ-जिगर क्या
मरदान सफ़ी
ग़ज़ल
किस लिए फिरते हैं ये शम्स ओ क़मर दोनों साथ
किस को ये ढूँडते हैं बरहना-सर दोनों साथ
नज़्म तबातबाई
ग़ज़ल
ख़ुश-तालई में शम्स ओ क़मर दोनों एक हैं
दिन रात का तो फ़र्क़ है पर दोनों एक हैं