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ग़ज़ल
अब्रू-ओ-बीनी जबीं नक़्श-ओ-निगार-ओ-ख़ाल-ओ-ख़त
लअ'ल-ओ-मरवारीद से बेहतर लब-ओ-दंदान थे
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
ये वो मोती हैं जिन की सीपियाँ आँखें हैं आशिक़ की
मिरे आँसू को मरवारीद के दाने से क्या निस्बत
इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन
ग़ज़ल
किया लबरेज़-ए-मरवारीद चश्म-ए-गौहर अफ़्शाँ से
गुमाँ गुज़रा जो दरिया पर मुझे दामान-ए-साहिल का
मीर कल्लू अर्श
ग़ज़ल
यूँ उठती हैं अंगड़ाई को वो मरमरीं बाँहें
जैसे कि 'अदम' तख़्त-ए-सुलैमाँ नहीं उठता
अब्दुल हमीद अदम
ग़ज़ल
ताज-महल को मरमरीं जिस्म की इक ग़ज़ल कहूँ
अपनी ग़ज़ल को नूर का उड़ता हुआ महल कहूँ