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ग़ज़ल
आलम-ए-रंग-ओ-नग़्मा में कैफ़ बहुत सही मगर
बे-ख़ुद-ए-सैर-ए-काएनात अपनी तरफ़ भी इक नज़र
सय्यदा अख़्तर
ग़ज़ल
न भूलेगा ख़याल ओ रंग-ए-रुख़ का नामा-बर होना
हदीस-ए-शौक़ से हर्फ़-ओ-ज़बाँ का बे-ख़बर होना
बेख़ुद मोहानी
ग़ज़ल
कैसा बिखर के रह गया हुस्न-ए-तिलिस्म-ए-रंग-ओ-बू
तोड़ दिया ख़िज़ाँ ने आज आइना-ए-बहार क्या
सय्यद अख़्तर अली अख़्तर
ग़ज़ल
रंग-ए-तिलिस्म-आलम-ए-तस्वीर है हयात
और इस निगार-ख़ाने में गुम हो चुका हूँ मैं
याह्या ख़ान यूसुफ़ ज़ई
ग़ज़ल
मिरे ख़याल की नुदरत किसी को क्या मा'लूम
तिलिस्म-ए-रंग-ए-तमन्ना है अब हुआ मा'लूम
मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
ग़ज़ल
हूँ तिलिस्म-ए-रंग-ओ-बू के फेर में भूला हुआ
आदमी बंदा बशर है क्या करूँ धोका हुआ
चंद्रभान कैफ़ी देहल्वी
ग़ज़ल
ख़ुदी से इस तिलिस्म-ए-रंग-ओ-बू को तोड़ सकते हैं
यही तौहीद थी जिस को न तू समझा न मैं समझा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
निगाह-ए-मस्त साक़ी की तिलिस्म-ए-रंग-ओ-मस्ती है
कहीं पैमाना बन जाए कहीं मय-ख़ाना बन जाए
माहिर-उल क़ादरी
ग़ज़ल
इस तिलिस्म-ए-रंग-ओ-बू के सेहर से निकले हैं जब
हम को अक्सर दिन में भी तारे नज़र आने लगे