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ग़ज़ल
ये मसाजिद-ओ-मनादिर मिरे काम कुछ न आए
तिरे इश्क़ में जो गुज़रा तो मैं अपनी जाँ से गुज़रा
फ़िगार मुरादाबादी
ग़ज़ल
बताएँ अहल-ए-दिल दुनिया के ईमानों पे क्या गुज़री
मसाजिद पर पड़ीं चोटें तो बुतख़ानों पे क्या गुज़री
हैरत बिन वाहिद
ग़ज़ल
अगर मस्लक के झगड़ों ने मसाजिद बाँट रक्खी हैं
तो फिर बहर-ए-ख़ुदा अपने मुसल्ले डाल सड़कों पर
अनस नबील
ग़ज़ल
अब वा'इज़-ओ-ज़ाहिद हैं बहम दस्त-ओ-गरेबाँ
इक जंग-ए-जमल आज मसाजिद में छिड़ी है
बद्र-ए-आलम ख़ाँ आज़मी
ग़ज़ल
शैख़ जो है मस्जिद में नंगा रात को था मय-ख़ाने में
जुब्बा ख़िर्क़ा कुर्ता टोपी मस्ती में इनआ'म किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
शैख़ करता तो है मस्जिद में ख़ुदा को सज्दे
उस के सज्दों में असर हो ये ज़रूरी तो नहीं