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ग़ज़ल
जमाल एहसानी
ग़ज़ल
मैं पत्थर ले कर बैठा हूँ और इस बस्ती के दाना अब
क्यूँ कार-ए-शीशा-गरी कर के मुझ को मशग़ूल नहीं करते
असअ'द बदायुनी
ग़ज़ल
ख़ुदा के ज़िक्र में मशग़ूल हैं जो मस्त पहाड़
समझ गए हैं यक़ीनन अदा-ए-वक़्त पहाड़
फ़ैसल नदीम फ़ैसल
ग़ज़ल
ग़ैरों से वो ख़ल्वत में है मशग़ूल-ए-ज़राफ़त
हम रश्क के मारे पस-ए-दीवार खड़े हैं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
उश्शाक़ की ख़ूँ-रेज़ी से क्या फ़ाएदा ज़ालिम
मशग़ूल हो लाखे में तो मसरूफ़ हिना में
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
मज़े से इश्क़ के ग़ाफ़िल रहे दोनों के दोनों ही
वो मशग़ूल-ए-जफ़ा हो कर मैं मसरूफ़-ए-फ़ुग़ाँ हो कर