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ग़ज़ल
साग़र सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
'इश्क़ बस में है मशिय्यत के अक़ीदा था मिरा
उस के बस में है मशिय्यत मुझे मा'लूम न था
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
ये है रिंदों पे रहमत रोज़-ए-महशर ख़ुद मशिय्यत ने
लिखा है आब-ए-कौसर से निखर जाना सँवर जाना
गुलज़ार देहलवी
ग़ज़ल
हुजूम-ए-संग-ए-अज़िय्यत में सर झुकाए हुए
रवाँ हैं ले के मशिय्यत के क़ाफ़िले हम लोग