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ग़ज़ल
ये दिल ये आसेब की नगरी मस्कन सोचूँ वहमों का
सोच रहा हूँ इस नगरी में तू कब से मेहमान हुआ
मोहसिन नक़वी
ग़ज़ल
थी सियाहियों का मस्कन मिरी ज़िंदगी की वादी
तिरे हुस्न के तसद्दुक़ मुझे रौशनी दिखा दी
आमिर उस्मानी
ग़ज़ल
दोनों में है नूर उसी का दोनों उस के मस्कन हैं
इक काबा है इक बुत-ख़ाना मेरे बस की बात नहीं
कुँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर
ग़ज़ल
मिरा सीना हज़ारों चीख़ती रूहों का मस्कन है
वसीला हूँ मैं गूँगी हसरतों की तर्जुमानी का
ख़ुर्शीद तलब
ग़ज़ल
दिल सा मस्कन छोड़ के जाना इतना भी आसान नहीं
सुब्ह को रस्ता भूल गए तो शाम को वापस आओगे