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ग़ज़ल
महकने वाली है रात जैसे उरूस मुश्क-ओ-हिना से महके
शफ़क़ का सहरा उतारता है सहर से दूल्हा बना हुआ दिन
हिना रिज़्वी
ग़ज़ल
फ़ल्सफ़ा 'ग़ालिब' के जैसा कौन लिक्खेगा 'हिना'
भर सकेगा शाइ'री में फिर से रंग-ए-'मीर' कौन
हिना रिज़्वी
ग़ज़ल
जुनूँ था वहशतें थीं आबला-पाई थी हसरत थी
'हिना' दश्त-ए-मोहब्बत में बहुत मुज़्तर थी तन्हाई
हिना रिज़्वी
ग़ज़ल
जुनूँ था वहशतें थीं आबला-पाई थी हसरत थी
'हिना' दश्त-ए-मोहब्बत में बहुत मुज़्तर थी तन्हाई
हिना रिज़्वी
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
हाथ से उन के टपकते नहीं मय के क़तरे
अश्क-ए-ख़ूँ रोता है ये रंग-ए-हिना मेरे ब'अद
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
बर्ग-ए-हिना ऊपर लिखो अहवाल-ए-दिल मिरा
शायद कि जा लगे वो किसी मीरज़ा के हाथ
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
ग़ज़ल
हिना तेरे कफ़-ए-पा को न उस शोख़ी से सहलाती
ये आँखें क्यूँ लहू रोतीं उन्हों की नींद क्यूँ जाती