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ग़ज़ल
ख़त में लिखवा कर उन्हें भेजा तो मतला दर्द का
दर्द-ए-दिल अपना जताना कोई हम से सीख जाए
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
आ ही जाएगी सहर मतला-ए-इम्काँ तो खुला
न सही बाब-ए-क़फ़स रौज़न-ए-ज़िंदाँ तो खुला
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
इदरीस बाबर
ग़ज़ल
तुम्हारे मतला-ए-अबरू पे ये कहे है ख़ाल
कि ऐसा नुक़्ता कोई वक़्त-ए-इंतिख़ाब तो दे
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
मिज़ाज उस वक़्त है इक मतला-ए-ताज़ा पे कुछ माइल
कि बे-फ़िक्र सुख़न बनती नहीं हरगिज़ सुख़न-दाँ को
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
होंगे क़ाइल वो अभी मतला-ए-सानी सुन कर
जो तजल्ली में ये कहते हैं कि तकरार नहीं