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ग़ज़ल
ज़िंदगी से सीख लीं हम ने भी दुनिया-दारियाँ
रफ़्ता रफ़्ता तुम में भी मौक़ा-परस्ती आ गई
नश्तर ख़ानक़ाही
ग़ज़ल
दिल में वफ़ा की है तलब लब पे सवाल भी नहीं
हम हैं हिसार-ए-दर्द में उस को ख़याल भी नहीं
आसिफ़ शफ़ी
ग़ज़ल
बुत-परस्ती की बहुत 'सय्याह' अब कर याद हक़
शुग़्ल-ए-मौला में रहे बंदा वही है काम का
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
ग़ज़ल
न होगा यक-बयाबाँ माँदगी से ज़ौक़ कम मेरा
हबाब-ए-मौजा-ए-रफ़्तार है नक़्श-ए-क़दम मेरा
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मैं क्या समझूँ तिरे वा'दे से क्या इज़हार होता है
कभी इक़रार होता है कभी इंकार होता है
सय्यद मसूद हसन मसूद
ग़ज़ल
वो सरकश है अगर मौक़ा मिले फ़ित्ना खड़ा कर दे
हम अपने नफ़्स को पा-बस्ता-ए-ज़ंजीर रखते हैं
सईद अहसन
ग़ज़ल
पारसा तू पारसाई पर न कर इतना ग़ुरूर
मैं अगर बंदा हूँ आसी पर मिरा मौला ग़फ़ूर