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ग़ज़ल
उन की रात में इतने सज्दे 'मेहर' किए हम ने
नक़्श-ए-क़दम उन के न किसी दिन दिल का बदल हो जाएँ
सुलताना मेहर
ग़ज़ल
'मेहर' उन का न्योता आया है मैं जी भर के गाऊँगी
चंद्र-किरन छेड़ेगी बीना देगी आ कर ताली धूप
सुलताना मेहर
ग़ज़ल
इस अक़ीदत का बुरा हो हम बयाबाँ को भी 'मेहर'
ख़ून-ए-दिल से सींचते और गुल्सिताँ कहते रहे
सुलताना मेहर
ग़ज़ल
ऐ 'मेहर' हम को चर्ख़ ने गर्दिश से रोज़-ओ-शब
मानिंद-ए-मेहर-ओ-माह ग़रीब-उल-वतन किया
सय्यद अाग़ा अली महर
ग़ज़ल
मेहर ज़र्रीं
ग़ज़ल
अपना माशूक़ है वो आलम-ए-तस्वीर ऐ 'मेहर'
कि उसे देखे तो 'बहज़ाद' भी हैराँ हो जाए
सूरज नारायण मेहर
ग़ज़ल
मश्शाता हो अज़ीज़-ए-ज़ुलेख़ा अगर वो लाए
इस मेहर-ए-मिस्र को मह-ए-कनआँ' के सामने
रजब अली बेग सुरूर
ग़ज़ल
रात-दिन उस का दाग़-ए-आह रखता है मेरे दिल से राह
'मेहर' हैं जैसे मेहर-ओ-माह नूर-तलब ज़िया-तलब
सय्यद अाग़ा अली महर
ग़ज़ल
मिर्ज़ा महर-ए-मोहब्बत तुम्हें फिर याद आई
दिल पे गुज़री थी जो कुछ रंज-ओ-अलम भूल गए