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ग़ज़ल
तरब-आशना-ए-ख़रोश हो तू नवा है महरम-ए-गोश हो
वो सरोद क्या कि छुपा हुआ हो सुकूत-ए-पर्दा-ए-साज़ में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
अमीर ख़ुसरो
ग़ज़ल
और तो मुझ को मिला क्या मिरी मेहनत का सिला
चंद सिक्के हैं मिरे हाथ में छालों की तरह
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
कोई हम-नफ़स नहीं है कोई राज़-दाँ नहीं है
फ़क़त एक दिल था अब तक सो वो मेहरबाँ नहीं है