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ग़ज़ल
कभी दो चार क़दमों का सफ़र तय हो नहीं पाता
कभी मीलों से लम्बा फ़ासला कुछ भी नहीं होता
मनीश शुक्ला
ग़ज़ल
मज़े ऐश ओ तरब लज़्ज़त लगे यूँ टूट कर गिरने
कि जैसे टूट कर मेवों के होवें ढेर आँधी में