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ग़ज़ल
ये मेरे इश्क़ की मजबूरियाँ मआज़-अल्लाह
तुम्हारा राज़ तुम्हीं से छुपा रहा हूँ मैं
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
मिरी उल्फ़त तअ'ज्जुब हो गई तौबा मआ'ज़-अल्लाह
कि मुँह से भी न निकले बात और अफ़्साना हो जाए
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
मेज़ पर नन्हा सा इक काग़ज़ का टुकड़ा छोड़ कर
ज़िंदगी की हर ख़ुशी वो ना-गहानी ले गया
जहाँगीर नायाब
ग़ज़ल
ये फ़लक ये माह-ओ-अंजुम ये ज़मीन ये ज़माना
तिरे हुस्न की हिकायत मिरे इश्क़ का फ़साना
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
मआ'ज़-अल्लाह उस की वारदात-ए-ग़म मआ'ज़-अल्लाह
चमन जिस का वतन हो और चमन-बे-ज़ार हो जाए
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
जवानी और फिर उन की जवानी ऐ मआज़-अल्लाह
मिरा दिल क्या तह-ओ-बाला निज़ाम-ए-दो-जहाँ तक है
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
फ़लक की सम्त किस हसरत से तकते हैं मआ'ज़-अल्लाह
ये नाले ना-रसा हो कर ये आहें बे-असर हो कर
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
मआज़ अल्लाह फ़ुर्क़त की हैं रातें क़ब्र की रातें
अभी से याँ हुआ जाता है सुन सुन कर फ़िशार अपना