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ग़ज़ल
कब तलक चलना है यूँ ही हम-सफ़र से बात कर
मंज़िलें कब तक मिलेंगी रहगुज़र से बात कर
भारत भूषण पन्त
ग़ज़ल
जानते थे हम भटक कर ही मिलेंगी मंज़िलें
अपने ही रस्ते चले फिर राह-दाँ चीख़ा किया
ज़ोहेब फ़ारूक़ी अफ़रंग
ग़ज़ल
वतन के जाँ-निसारों को मिलेंगी बेड़ियाँ कब तक
लिया जाएगा आख़िर-कार हम से इम्तिहाँ कब तक
तशना आज़मी
ग़ज़ल
आड़ी तिरछी कुछ लकीरें ही मिलेंगी शाम तक
शहर के चौराहे पर तू अपनी फ़नकारी न रख