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ग़ज़ल
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
ज़ात-कदे में पहरों बातें और मिलीं तो मोहर ब-लब
जब्र-ए-वक़्त ने बख़्शी हम को अब के कैसी मजबूरी
मोहसिन भोपाली
ग़ज़ल
हमें फ़ुर्सतें ही कहाँ मिलीं कि हम एक दूजे को देखते
कभी चाँद आ गया अब्र में कभी मैं भी छत से उतर गया