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ग़ज़ल
नहीं तेरे लिए ये दो मिनट की चुप नहीं काफ़ी
तिरा ग़म मुस्तहिक़ है उम्र भी की नौहा-ख़्वानी का
ख़ुर्शीद तलब
ग़ज़ल
तारों की झमकती बाढ़ तले आँखों में रात गुज़ारी है
और आठ मिनट की दूरी पर सूरज की ज़र्द अमारी है
आबिद रज़ा
ग़ज़ल
मिरी नज़रें भी ऐसे क़ातिलों का जान ओ ईमाँ हैं
निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं