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ग़ज़ल
शबीह खींचेगा इक गुल के क़द्द-ए-मौज़ूँ की
लिखेगा मिस्रा-ए-शमशाद का जवाब क़लम
पीर शेर मोहम्मद आजिज़
ग़ज़ल
सुलगना अंदर अंदर मिस्रा-ए-तर सोचते रहना
बदन पर डाल कर ज़ख़्मों की चादर सोचते रहना
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
ख़ुश-क़दों ने जो किया शेर-ओ-सुख़न का जल्सा
तरह होने के लिए मिस्रा-ए-शमशाद आया
सय्यद अमीर हसन बद्र
ग़ज़ल
दीद उस की है करो जिस ने बनाया सब कुछ
न कि हर लहज़ा फ़िदा-ए-गुल-ओ-शमशाद रहो
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
याद में उस क़द ओ रुख़्सार के ऐ ग़म-ज़दगाँ
जा के टुक बाग़ में सैर-ए-गुल-ओ-शमशाद करो
मीर मोहम्मदी बेदार
ग़ज़ल
ता न फिर शा'इर लिखें तौसीफ़-ए-बाला-ए-बुताँ
मिस्रा'-ए-मौज़ूँ-ओ-शे'र-ए-इंतिख़ाबी तू पहुँच
वलीउल्लाह मुहिब
ग़ज़ल
खोल कर कीजिए तशरीह-ए-सर-ए-मिस्रा-ए-ज़ुल्फ़
इस नविश्ते में कुछ इबहाम अभी बाक़ी हैं