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ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
ये शीशा-घर अभी तक अर्सा-ए-तकमील में है
ये ख़्वाब-ए-ख़ूबसूरत मोरिज़-ए-ईजाद में है
ज़ुल्फ़ेक़ार अहमद ताबिश
ग़ज़ल
ये शगूफ़े रात दिन खिलते हैं किस बुनियाद पर
मुझ को हैरत है बिना-ए-गुलशन-ए-ईजाद पर
बिस्मिल इलाहाबादी
ग़ज़ल
चले थे हम कि सैर-ए-गुलशन-ए-ईजाद करते हैं
कि इतने में अजल आ कर पुकारी याद करते हैं
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
जो करता है निसार-ए-नौ-ए-इंसाँ अपनी हस्ती को
वो इंसाँ इफ़्तिख़ार-ए-आलम-ए-ईजाद होता है