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ग़ज़ल
अब न वो मैं न वो तू है न वो माज़ी है 'फ़राज़'
जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
मैं वो हूँ जिस का ज़माने ने सबक़ याद किया
ग़म ने शागिर्द किया फिर मुझे उस्ताद किया
साक़िब लखनवी
ग़ज़ल
दिखा दे जल्वा जो मस्जिद में वो बुत-ए-काफ़िर
तो चीख़ उट्ठे मोअज़्ज़िन जुदा ख़तीब जुदा
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
मोअज़्ज़िन को भी वो सुनते नहीं नाक़ूस तो क्या है
'अबस शैख़ ओ बरहमन हर तरफ़ फ़रियाद करते हैं
लाला माधव राम जौहर
ग़ज़ल
सुन लेते हैं चुपके से मोअज़्ज़िन की हम ऐ शैख़
जब हाथ में नाक़ूस-ए-कलीसा नहीं होता
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
क़त्ल करता है मुझे क्यूँ शब-ए-फ़ुर्क़त ख़ामोश
ऐ मोअज़्ज़िन मद-ए-तकबीर नहीं आरे हैं
इमदाद अली बहर
ग़ज़ल
लुत्फ़ आए जो शब-ए-वस्ल मोअज़्ज़िन सो जाए
क्यूँकि वो गोश-बर-आवाज़ नज़र आते हैं
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
सरोद-ए-बाँग-ए-मोअज़्ज़िन नहीं दलील-ए-सहर
मिज़ा पे सुब्ह का तारा नहीं तो कुछ भी नहीं