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ग़ज़ल
मैं खड़ा फ़ुट-पाथ पर करता रहा रिक्शा तलाश
मेरा दुश्मन उस को मोटर में बिठा कर ले गया
अर्श सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
बिगड़ती है कभी क़िस्मत कभी बीवी कभी मोटर
यक़ीनन मुश्तरक है कोई सी इक चीज़ तीनों में
बुलबुल काश्मीरी
ग़ज़ल
मैं भी अपनी लख़्त-ए-जिगर के सारे क़र्ज़ अदा कर दूँ
तू भी अपने बेटे की शादी में मोटर कार न माँग
मोहम्मद शफ़ी सीतापूरी
ग़ज़ल
दश्त-ए-उल्फ़त में जो मोटर की सवारी होती
ग़ैर मुमकिन था मिरे पाँव में छाले होते