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ग़ज़ल
फ़रेब-ए-ज़ार मोहब्बत-नगर खुला हुआ है
तुम्हारे ख़्वाब का मुझ पे असर खुला हुआ है
अब्दुर्राहमान वासिफ़
ग़ज़ल
जो अहल-ए-मोहब्बत हैं कह दो ये 'निगार' उन से
आफ़ात से टकराना इज़्ज़त की निशानी है
ज़हीरुन्निसा निगार
ग़ज़ल
मकानों के नगर में हम अगर कुछ घर बना लेते
तो अपनी बस्तियों को स्वर्ग से बढ़ कर बना लेते
नवीन सी. चतुर्वेदी
ग़ज़ल
ख़्वाब-नगर के शहज़ादे ने ऐसे भी निरवान लिया
चाँद सजाया आँखों में और रात को सर पर तान लिया
ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर
ग़ज़ल
प्यार मोहब्बत क़स्में वा'दे सब झूटे अफ़्साने हैं
सच्ची बातें लिख कर हम को अपने यार गँवाने हैं