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ग़ज़ल
मिरे मास्टर न होते जो उलूम-ओ-फ़न में दाना
कभी मौला-बख़्श-साहब का न मैं शिकार होता
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
ग़ज़ल
बैठे हैं अपनी सीट पर कैसे भगाएँ मास्टर
आए हैं दे के फ़ीस हम कोई हमें भगाए क्यों
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
ग़ज़ल
'शाहिद'-साहिब कहलाते हैं मिस्टर भी मौलाना भी
हज़रत दो किरदारों वाले हेरा-फेरी करते हैं
सरफ़राज़ शाहिद
ग़ज़ल
बने न हम जो मिनिस्टर तो ग़म नहीं 'वाहिद'
हमारे साथ में चमचों का इज़्दिहाम तो है
वहिद अंसारी बुरहानपुरी
ग़ज़ल
बुलंदी पर पहुँचना है तो पैदा ख़ाकसारी कर
बड़ा बन ने की ख़्वाहिश है तो इज्ज़-ओ-इंकिसारी कर
मास्टर निसार अहमद
ग़ज़ल
मिनिस्टर हों कि चपरासी वो अच्छा हो नहीं सकता
कि पब्लिक के लिए मक्कारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
वहिद अंसारी बुरहानपुरी
ग़ज़ल
अदावत से अगर तू बे-ख़बर होता तो अच्छा था
तिरे दिल पर मोहब्बत का असर होता तो अच्छा था
मास्टर निसार अहमद
ग़ज़ल
अदावत दिल में रखते हो ज़बाँ पर प्यार क्या मतलब
कभी नफ़रत कभी उल्फ़त का है इज़हार क्या मतलब
मास्टर निसार अहमद
ग़ज़ल
हम अपनी जान से ऐ बुत बहुत बेज़ार बैठे हैं
भरी बरसात में आकर पस-ए-दीवार बैठे हैं