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ग़ज़ल
फ़ुसूँ है या दुआ है या मुअ'म्मा खुल नहीं सकता
वो कुछ पढ़ते हुए आगे मिरे मदफ़न के बैठे हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
अहमद और अहमद-ए-बे-मीम का पर्दा क्या है
अक़्ल-ए-अव्वल को भी हैरत है मुअम्मा क्या है
मोहम्मद यूसुफ़ रासिख़
ग़ज़ल
वो इश्क़ था या मजबूरी थी अब तक ये मुअ'म्मा हल न हुआ
हर रोज़ मुआ'फ़ी के बदले इक ताज़ा सितम ईजाद किया
अब्दुल क़ादिर
ग़ज़ल
तुम्हारी बे-रुख़ी का भी मुअ'म्मा हल नहीं होता
कि आलम-आश्ना हो और फिर ना-आश्ना तुम हो
अबुल बक़ा सब्र सहारनपुरी
ग़ज़ल
सितम-ज़रीफ़ी-ए-फ़ितरत ये क्या मुअ'म्मा है
कि जिस कली को भी सूंघूँ मैं बू-ए-यार आए