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ग़ज़ल
यही अच्छा हुआ तू ने जो ज़ुल्फ़ों को मुँडा डाला
नहीं तो तेरे दीवानों की हालत और हो जाती
बूम मेरठी
ग़ज़ल
मुझे दुख फिर दिया तू ने मुँडा कर सब्ज़ा-ए-ख़त को
जराहत को मिरे वो मरहम-ए-ज़ंगार बेहतर था
इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन
ग़ज़ल
अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँद
या'नी रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया