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ग़ज़ल
अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँद
या'नी रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
तू क्या जाने तेरी बाबत क्या क्या सोचा करते हैं
आँखें मूँदे रहते हैं और तुझ को सोचा करते हैं
शमीम अब्बास
ग़ज़ल
आँखें मूँदे सब कुछ भूले कब से यूँही बैठे हैं
पलकों पे कुछ ख़्वाब सजाए जागे जागे सोए हैं
हफीज़ बेताब
ग़ज़ल
मैं ने तुझ पर आँख मूँदे कर लिया था ए'तिमाद
शीशा ये टूटा तो हर-सू किर्चियाँ बिखरा गया