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ग़ज़ल
मैं दिए जलाऊँ मुंडेर पर कि ज़रूर आएगा वो इधर
इसी शाम वो किसी और सम्त रवाना हो कहीं यूँ न हो
साबिर ज़फ़र
ग़ज़ल
कभी मौसम साथ नहीं देते कभी बेल मुंडेर नहीं चढ़ती
लेकिन यहाँ वक़्त बदलने में ऐसी कोई देर नहीं लगती
सलीम कौसर
ग़ज़ल
दिए मुंडेर प रख आते हैं हम हर शाम न जाने क्यूँ
शायद उस के लौट आने का कुछ इम्कान अभी बाक़ी है
ऐतबार साजिद
ग़ज़ल
पेड़ भी आँगन से कटवाया और मुंडेर पे काँच जड़े
मुश्किल से आज़ाद हुआ हूँ चिड़ियों की निगरानी से