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ग़ज़ल
आने जाने से वे किस के लिए घबराते हैं
नहीं दाख़िल है कचहरी में मुचलका उन का
मुंशी शिव परशाद वहबी
ग़ज़ल
मैं दश्त हूँ ये मुग़ालता है न शाइ'राना मुबालग़ा है
मिरे बदन पर कहीं क़दम रख के देख नक़्श-ए-क़दम बनेगा
उमैर नजमी
ग़ज़ल
जिस के हर क़तरे से रग रग में मचलता था लहू
फिर वही इक शय पिला दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
ग़ज़ल
शगूफ़ों को शरारों का मचलता रूप देती हैं
हक़ीक़त को बना देती हैं अफ़्साने तिरी आँखें
साग़र सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
महशर आफ़रीदी
ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
बदन को तोड़ के बाहर निकलना चाहता है
ये कुछ तो है ये मचलता हुआ सा कुछ तो है