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ग़ज़ल
तअ'ल्लुक़ रहनुमा का मुफ़लिस-ओ-नादार से कैसा
उन्हें वोटों की ख़ातिर वक़्त पर फुस्लाया जाता है
ओम प्रकाश लाग़र
ग़ज़ल
इस ज़माने में बड़ी होती है ज़रदारों की क़द्र
पूछता है कौन 'आजिज़' मुफ़्लिस-ए-नादार को
मोहम्मद इब्राहीम आजिज़
ग़ज़ल
इस ख़ानुमाँ-ख़राब का घर है न कोई घाट
दिल सा ग़रीब मुफ़लिस-ओ-नादार कौन है
तमीज़ुद्दीन तमीज़ देहलवी
ग़ज़ल
ये जहाँ मुफ़लिस-ओ-नादार का हमदर्द हो क्यूँ
जिस के हर कोने पे तहरीर है ज़रदार के साथ
उम्मीद ख़्वाजा
ग़ज़ल
ख़ुलूस-ए-दिल है या कुछ बे-असर अशआ'र हैं साक़ी
करें क्या नज़्र तेरी मुफ़लिस-ओ-नादार हैं साक़ी
साबिर अबुहरी
ग़ज़ल
ग़रीबी का गिला करके तू अपनी क़द्र मत खोना
बका-ए-अज़्मत-ए-नादार ख़ुद्दारी में रक्खी है
मज़हर मुजाहिदी
ग़ज़ल
मा-सिवा इस नीम-जाँ और बे-कस-ओ-नादार के
'फ़ैज़' तेरा था सभी पर और लुत्फ़-ए-आम था