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ग़ज़ल
दिला ये दर्द-ओ-अलम भी तो मुग़्तनिम है कि आख़िर
न गिर्या-ए-सहरी है न आह-ए-नीम-शबी है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
जो मेहरबाँ हैं वो 'सौदा' को मुग़्तनिम जानें
सिपाही-ज़ादों से मिलता है देखिए क्या हो
मोहम्मद रफ़ी सौदा
ग़ज़ल
फिर इस के बाद शब है जिस की हद सुब्ह-ए-अबद तक है
मुग़न्नी शाम का नग़्मा सुना आहिस्ता आहिस्ता
अहमद नदीम क़ासमी
ग़ज़ल
कह दो मुग़न्नी से अब ठहरे ख़्वाब-आवर नग़्मे रोके रोके
कोई हमें ललकार रहा है पर्बत से मीनारों से
वामिक़ जौनपुरी
ग़ज़ल
जहाँ साज़-ए-मोहब्बत पर मुग़न्नी गा नहीं सकता
वहाँ नग़्मा अलापा है कभी तुम ने कभी हम ने