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ग़ज़ल
बद्र-ए-आलम ख़लिश
ग़ज़ल
कहाँ ताक़त सुनाने की किसे फ़ुर्सत है सुनने की
कि मुज्मल होते होते भी हिकायत बढ़ती जाती है
वासिफ़ देहलवी
ग़ज़ल
उस ने इस मुज्मल के तफ़सीलात जब पूछे तो फिर
लुत्फ़ से उस नुक्ता-रस ने यूँ किया इस का बयाँ
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
निहाल सब्ज़ रंग में जमाल जिस का है 'मुनीर'
किसी क़दीम ख़्वाब के मुहाल में मिला मुझे
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
आह ये मजमा-ए-अहबाब ये बज़्म-ए-ख़ामोश
आज महफ़िल में 'फ़िराक़'-ए-सुख़न-आरा भी नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
भरे हैं तुझ में वो लाखों हुनर ऐ मजमा-ए-ख़ूबी
मुलाक़ाती तिरा गोया भरी महफ़िल से मिलता है
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
दम-ए-आख़िर मिरी बालीं पे मजमा' है हसीनों का
फ़रिश्ता मौत का फिर आए पर्दा हो नहीं सकता