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ग़ज़ल
मुलाज़िम बनना था किस को मुलाज़िम बन गया कोई
हुनर ज़ेर-ए-सिफ़ारिश है किसी से कुछ नहीं बोलें
अज़हर हाश्मी सबक़त
ग़ज़ल
नौ-मुलाज़िम लाल-ए-लब को ले गए तनख़्वाह में
बे-तलब रहता है ये नौकर तिरी सरकार का
अशरफ़ अली फ़ुग़ाँ
ग़ज़ल
आ ऐ 'असर' मुलाज़िम-ए-सरकार-ए-गिर्या हो
याँ जुज़ गुहर ख़ज़ाने में तनख़्वाह ही नहीं
क़ाएम चाँदपुरी
ग़ज़ल
वो ख़त्त-ए-शौक़ के जितने पुलंदे चाहे ले जाए
मुलाज़िम डाक-ख़ाने में कबूतर हो नहीं सकता
ज़रीफ़ लखनवी
ग़ज़ल
मिरी ख़ुश-क़िस्मती कहिए कि सरकारी मुलाज़िम हूँ
मैं हर पल देखता रहता हूँ सरकारी अदाकारी
शाहिद जमाल
ग़ज़ल
सच जहाँ पा-बस्ता मुल्ज़िम के कटहरे में मिले
उस अदालत में सुनेगा अद्ल की तफ़्सीर कौन