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ग़ज़ल
'ज़ौक़' जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
उन को मय-ख़ाने में ले आओ सँवर जाएँगे
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
मिरे लिए तो है इक़रार-ए-बिल-लिसाँ भी बहुत
हज़ार शुक्र कि मुल्ला हैं साहिब-ए-तसदीक़
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मुझ को तो सिखा दी है अफ़रंग ने ज़िंदीक़ी
इस दौर के मुल्ला हैं क्यूँ नंग-ए-मुसलमानी
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ऐ मुसलमाँ अपने दिल से पूछ मुल्ला से न पूछ
हो गया अल्लाह के बंदों से क्यूँ ख़ाली हरम
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
'मुल्ला' का गला तक बैठ गया बहरी दुनिया ने कुछ न सुना
जब सुनने वाला हो ऐसा रह रह के पुकारा कौन करे
आनंद नारायण मुल्ला
ग़ज़ल
'मुल्ला' का मस्जिदों में तो हम ने सुना न नाम
ज़िक्र उस का मय-कदों में मगर दूर दूर था
आनंद नारायण मुल्ला
ग़ज़ल
लब पे नग़्मा और रुख़ पर इक तबस्सुम की नक़ाब
अपने दिल का दर्द अब 'मुल्ला' को कहना आ गया
आनंद नारायण मुल्ला
ग़ज़ल
पूछे मुल्ला से जिसे करना हो सज्दा सहव का
सीखे गर अपना भुलाना कोई हम से सीख जाए