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ग़ज़ल
हों मुनअक़िद क़दम-क़दम मोहब्बतों की महफ़िलें
हुआ है ऐसा फ़ैसला न शहर में न गाँव में
माया खन्ना राजे बरेलवी
ग़ज़ल
वो मुंकिर है तो फिर शायद हर इक मकतूब-ए-शौक़ उस ने
सर-अंगुश्त-ए-हिनाई से ख़लाओं में लिखा होगा
जौन एलिया
ग़ज़ल
जो मुनकिर-ए-वफ़ा हो फ़रेब उस पे क्या चले
क्यूँ बद-गुमाँ हूँ दोस्त से दुश्मन के बाब में
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हामी भी न थे मुंकिर-ए-'ग़ालिब' भी नहीं थे
हम अहल-ए-तज़बज़ुब किसी जानिब भी नहीं थे
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
हम तो चाहत में भी 'ग़ालिब' के मुक़ल्लिद हैं 'फ़राज़'
जिस पे मरते हैं उसे मार के रख देते हैं