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ग़ज़ल
मुबादा मुंदमिल ज़ख़्मों की सूरत भूल ही जाएँ
अभी कुछ दिन ये घर बरबाद रखना चाहते हैं
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
मैं सब को भूल गया ज़ख़्म-ए-मुंदमिल की मिसाल
मगर वो शख़्स कि हर बात जारेहाना करे
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
ये चश्म-ए-दोस्त की साज़िश नहीं तो और फिर क्या है
कि मेरे मुंदमिल ज़ख़्मों के मरहम याद आते हैं
क़ैसर सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
अमीक़ ज़ख़्म इस क़दर ब-दस्त-ए-रोज़-ओ-शब मिले
कि मुंदमिल न कर सकी दवा-ए-माह-ओ-साल तक
अज़ीम हैदर सय्यद
ग़ज़ल
ज़ख्म-ए-हिज्राँ की नहीं और तो दुनिया में दवा
मुंदमिल वस्ल के मरहम से तो होता है ये घाव