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ग़ज़ल
फिर चराग़-ए-लाला से रौशन हुए कोह ओ दमन
मुझ को फिर नग़्मों पे उकसाने लगा मुर्ग़-ए-चमन
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
तू हुमा का है शिकारी अभी इब्तिदा है तेरी
नहीं मस्लहत से ख़ाली ये जहान-ए-मुर्ग़-ओ-माही
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
अल्लाह-रे ज़ौक़-ए-दश्त-नवर्दी कि बा'द-ए-मर्ग
हिलते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद मिरे अंदर कफ़न के पाँव
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
उड़ते ही रंग-ए-रुख़ मिरा नज़रों से था निहाँ
इस मुर्ग़-ए-पर-शिकस्ता की परवाज़ देखना
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
रश्क-ए-हम-तरही ओ दर्द-ए-असर-ए-बांग-ए-हज़ीं
नाला-ए-मुर्ग़-ए-सहर तेग़-ए-दो-दम है हम को
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
है फ़क़त मुर्ग़-ए-गज़ल-ख़्वाँ कि जिसे फ़िक्र नहीं
मो'तदिल गर्मी-ए-गुफ़्तार करूँ या न करूँ
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
क्या छोड़ें असीरान-ए-मोहब्बत को वो जिस ने
सदक़े में न इक मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार भी छोड़ा
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
दिल-ए-ग़मीं के मुआफ़िक़ नहीं है मौसम-ए-गुल
सदा-ए-मुर्ग़-ए-चमन है बहुत नशात अंगेज़
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
बद-गुमाँ होता है वो काफ़िर न होता काश के
इस क़दर ज़ौक़-ए-नवा-ए-मुर्ग़-ए-बुस्तानी मुझे